साहित्य-संवाद
साहित्य समय और संस्कृति
शनिवार, 3 फ़रवरी 2024
बहुरुपिया
प्रकृति भी हमारी तरह बहुरुपिया हो चली है। हर सुबह एक नए रंग रूप में सामने आ खड़ी होती है और कहती है मुझे पहचानो।हमने सब कुछ इसी से सीखा है। यह केवल हमें सत्यं वद धर्म चर की शिक्षा नहीं देती बल्कि इसे तरह तरह की छलनाएँ भी आती हैं। यह सहज है तो इससे अधिक मायावी भी कोई नहीं। हम तो इसमें केवल सात रंग ही देख पाए, पर यह अपनी हर झलक में यह नए रंग और नई कला के साथ झांक जाती है। हमारी कल्पना की सारी संभावनाएं इस एक के भीतर मौजूद है। इसलिए मनुष्य ने इस जीवन के अलग-अलग संबंधों से जोड़कर महसूस किया है। किसी को इसामें मां का रुप दिखा तो किसी को प्रेयसी का। ये ही हमारे जीवन-राग के दो चरम रुप हैं। ममता और रति। स्नेह, दुलार और अपनत्व का चरम रुप है मां और सहाचर्य -प्रेम का प्रेयसी। मानव-मन शायद इससे आगे महसूस नहीं कर पाता। और बुद्धि? यह निठल्ली तो यहां तक भी नहीं पहुंच पाती। उसके लिए या तो यह पदार्थ/भूत (भौतिकबाद) है या फिर माया (आदर्शवाद)। जो भी हो यह समूची सृष्टि में अनूठी है। हो भी क्यों न हमारी सारी तर्क -शक्ति यहीं आकर अटक जाती है। चेतना 'नेति-नेति' कहकर नत-मस्तक हो जाती है, पर बेचारा 'अहम्' भला कैसे तुष्ट हो? वह चल देता है नाप-तोल करने । 'भूत'और 'माया' के सूखे लट्ठ इसके कोमल गात पर आ पड़ते हैं और सदियों सहस्राब्दियों तक इसके अघात प्रति आघात सहती यह कभी कराहती कभी मुस्कुराती कभी अठखेलियां करती हमारे साथ चलती रहती है...
बुधवार, 25 अक्तूबर 2023
महात्मा गांधी
महात्मा गांधी पिछली सदी में दुनिया की सर्वाधिक चर्चित हस्तियों में से एक रहे। वे एक कुशल राजनीतिज्ञ, सफल दार्शनिक और सच्चे जननेता थे। वे अपने सच्चेअर्थों में 'वैष्णव जन' और भारतीय किसान की मनोयात्रा के सहयात्री भी थे। वैष्णवता और किसान दोनों ही पूरक तथा भारतीय मन की शाश्वत धुरी हैं और दोनों ही अपनी मूल वृत्ति में अहिंसक हैं। इसलिए 'अहिंसा' उनके लिए राजनीतिक हाथियार से अधिक जीवन-व्यवाहार रही।
'हिंद स्वराज' के गांधी उन अर्थों में राजनीतिक व्यक्ति नहीं थे, जैसे वे दक्षिण-अफ्रीका से लौटने के बाद थे। फिर भी उनके उठाए गए सवाल और उसके उत्तर खांटी भारतीय वैष्णव जन के उहापोह की ही उपज हैं। वे वहां वकील, डॉक्टर या रेल की भूमिका को लेकर जो बातें करते हैं, उसमें 'अहिंसा' का सीधा जिक्र भले न हो, पर अपने व्यापक परिप्रेक्ष्य में उनकी अलोचना के संदर्भ अहिंसा से ही जुड़े हैं।
वे पिछली सदी के अकेले चिंतक रहे जो भारतीय चित्त और मानस से पूर्ण तादात्म्य कर सके। वे बीसवीं शताब्दी में तर्क और आस्था दोनों के संतुलन कसौटी हैं। इसीलिए भारतीय जन मानस का जितना कुशल राजनितिक उपयोग वे कर सके दूसरा कोई भी आजादी का सिपाही वैसा नहीं कर सका।
वे ईश्वर या अवतार नहीं थे। न उन्होंने कभी इसका दावा किया और न उनके अनुयायियों ने। इसलिए उन्हें निर्विवाद या निष्कलंक मानना या उनसे किसी दैवीय चमत्कार की अपेक्षा करना गलत होगा और अंध आलोचनाएं एक स्वस्थ बौद्धिक समाज के लिए खतरनाक। यह खतरा मूर्तिपूजक और मूर्तिभंजक दोनों विचारधाराओं की ओर से है। दोनों के लिए ही स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी उपस्थिति की तलाश में वे खड़ी पाई की तरह अड़े दिखाई देते हैं। इसलिए आवश्यक है कि खड़ी पाई से अटक कर समय नष्ट करने या उसे काट-पिट कर आगे वाक्य-विस्तर कर करने की ऊल जुलूल कोशिश के बजाय पूर्व-वाक्य के 'गैप' (यदि कोई लगता है) को पूरा करते हुए अगला नया वाक्य रचा जाय।
बसंत की बहार से सुखद है शरद की बयर
दशहरे के आवन की एक अलग खुशबू है। दिल्ली जैसे धूल-धक्कड और प्रदूषण भरे शहर में आज भोर की हवा गाँव की याद दिला गई। ठुनकती-खुनकती सी यह हवा मुझे बसंती बयार से ज्यादा प्रिय है। गर्मियों की तपन और बरसात की पिचपिचाती रातों के बाद की यह हल्की ठंडी... जूही, चंपा मोगरे और हरसिंगार की संगति से छनी हुई...
मादक नहीं, गहरी परितृप्ति से भर देने वाली हवा..
यह हमेशा मुझे गाँव की याद दिलाती है। बुलाती है।
बचपन से प्रवासी रहा। गांव-घर से बहुत दूर का। साधन और संचार तब आज के से सुलभ न थे, इसलिए दूरियां और अधिक लगती थी। गर्मी की छुट्टियों से लौटने के बाद दशहरे की बेसब्री से प्रतीक्षा रहती। गांव की रामलीला, मेला और मेले में दूर-दूर शहरों कस्बों से लौटे हुए बहरवांसू और उनके बच्चे। इन दिनों हमारा छोटा-सा गांव भी फैल कर बड़ा हो जाता। दिल्ली-कलकत्ता, सूरत-बंबई सब के सब इस गांव में आ जुटते। मेरा गांव ही क्यों? आस-पास के गांवों के बहरवासू और उनके हिस्से के बंबई-लकत्ता भी। बिना उनके मेरे गांव के मेले की खुशबू भला कहां? यह इत्र फुलेल की खुशबू नहीं। उड़ती धूल और पसीने के बीच चाचा, दादा, भइया, दीदी जैसे रिश्तों की खुशबू थी।
भगवान राम की रजगद्दी के बाद गांव धीरे-धीरे खाली होने लगता । रिश्ते मेहमान और सवारियां बन अपने-अपने गांवों कस्बों और शहरों की ओर लौट जाते। जो बाकी बचते वे हंसुआ, खुरपी और धान के खेत होते। उनके जोतने, बोने, निराने और गोडने से ही शहरों-कस्बों में रोपे हुए हरसिंगार, चम्पा और जूही हर रात लॉनों में महक पाते हैं।
पिछले कुछ सालों से धान के खेत भी वही हैं, हँसुआ और खुरपी भी लेकिन रिश्तों के हर सिंगार वहां नहीं खिलते। भगवान राम का दरबार अब पहले-सा नहीं भरता। इसलिए वह खुशबू भी यहां दिल्ली में भटकती हुई आ मिली। उसे शायद किसी नए दर की तलाश हो।
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